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Thursday, November 10, 2022

स्वयं-सेवक


मातृभूमि के प्रति भक्ति-भाव से पूरित,

संकल्प-युक्त, कर्मठ था वह स्वयं-सेवकों का दल,

गुणी, अध्ययन-शील, अनुशासित,

स्व को समूह में अर्पित करने को तत्पर|


जुड़ रहा था जनसमूह,

निर्मित हो रहा था राष्ट्र शनैः-शनैः,

जागृत हो रही थी,

सुषुप्त सनातन-चेतना|


था नहीं सब ठीक विश्व में,

युद्ध, आतंकवाद और आर्थिक-विषमताएं,

भारत भी था पीड़ित इन त्रासदियों से,

प्रगति-दर भी थी नहीं वांछित|


तात! यहाँ तक तो ज्ञात है न आपको?

हाँ वत्स! देख सकता था मैं भी विपर्यस्त व्यवस्था व् व्याप्त असंतुष्टता,

विकास के प्रकाश की खोज में,

मैं भी दल-सहित प्रयासरत था अनवरत|


किन्तु स्यात अब रुग्ण हो गयी हैं आखें,

या धुंधला सा है चहुँ-ओर,

कुछ भी सम्यक दृष्टिमान नहीं,

झूठ औ सच के भेद का ज्ञान नहीं|


चिंता न करें तात!

महाभारत के संजय की भांति, मैं बनूँगा आपकी आखें,

भारत-पुत्र, मैं भूला नहीं हूँ अपने संस्कारों को,

जिसमें है निहित, गुरुजनों की सेवा-सुश्रुषा का मूल्य|


साधु वत्स! साधु!

कहो!

किन्तु मेरा प्रत्याभिज्ञान कहता है कि छद्म-चमक के पार्श्व में,

माँ भारती अभी भी पीड़ित व रुदित है|


हा! सत्य ही अनुमान किया तात!

ग्लानि-ग्रस्त, फंसा हूँ अंतर्द्वंद्व में,

क्या छिपाऊं आपसे,

और क्या बतलाऊँ ?


हाँ तात!

धुंधला सा ही है सर्वत्र,

देख वही सकता,

जिसकी अंतर्दृष्टि हो जागृत|


अब तथ्यों और विचारों में,

दुष्कर है भेद करना,

दोनों एक दुसरे में गुम्फित,

तथ्य बलशाली के शस्त्र से निर्धारित होता है|


राष्ट्र-वाद, हिन्दू-रक्षक का स्वांग रच,

बहुरूपिये राज कर रहे,

जो क्षुद्र-अहंकार व् स्वार्थ सिद्धि को,

जन-सेवा की संज्ञा देते हैं|


संस्थाओं का होता खुला दुरूपयोग,

भय और अविश्वास व्याप्त सर्वत्र है,

चुनाव-जीतना ही मानो शासन का ध्येय-मात्र,

जनता बस रैलियों में भीड़ का स्तोत्र है|


राज की असफलताओं को आवृत करने हेतु,

सैनिक राजनैतिक विरोधियों के प्रति,

जनता को भड़काते हैं,

नित-नए मिथक रच, झूठी कथा सुनाते हैं|


महंगाई हो या अराजकता,

शासन के तुगलकी आदेश या अपरिपक्व नीतियां,

जनता अनमने मन से,

चुपचाप सहती जाती है|


स्वतंत्र विचारों पे है रोध यहाँ,

राजा की आलोचना पर पालित सेना,

देशद्रोह का अपराध लगा,

कठोर दंड दिलवाती है|


शासन की कार्य-प्रणाली का विरोध,

राजा के अहंकारी आदेशों का प्रतिरोध,

देश-द्रोह कैसे हुआ तात?

क्या व्यक्ति देश से बड़ा हो गया?


तात मौन थे,

मानो किसी गहन-चिंतन में लीन

थे द्रवित,

यथा-स्थिति के इस वर्णन से,


तो मेरी आशंका ठीक ही थी,

यह कह,

उस विशाल-मस्तक, प्रशांत मुख के नयन-कोरों से,

दो अश्रु-कण छलक पड़े|


प्रश्न अनेक थे,

उत्तर न कोई,

गंभीर था वातावरण,

जिसमें शून्य की नीरवता थी गुँजित|


तरुण शिष्य - अधीर, उत्सुक,

आचार्य-तात को मुखरित,

उनके मंतव्य की,

प्रतीक्षा में था|


क्या सभी वृद्ध हो गए?

क्या सबकी आँखें कमज़ोर औ वाणी शिथिल हो गयी?

कहाँ गया वह,

कटिबद्ध, कर्मरत राष्ट्र-सेवकों, स्वयं-सेवकों का दल?


क्या वे भी राज-पालितों द्वारा खदेड़ दिए गए?

या राजा की सेना में,

पारितोषिक प्राप्त, वेतनधारी हो,

कर्त्तव्य-चुत हो गये?


वत्स! ह्रदय-विदीर्ण हुआ जाता है,

इन बातों से अब श्वास रुँधता है,

ले चलो मुझे यहाँ से,

सूदूर किसी शांति वन में |


अहा! यह दहकती ग्रीष्म में शीतल बयार की भांति,

कोयल जैसी माधुर्य लिए, सुरचित ताल से संचालित,

रागिनियों पे खेलती,

मधुर संगीत-ध्वनि कहाँ से आ रही?


अरे, यह कौन है बालिका,

नन्हीं परी,

प्रिये!

तू क्या देवलोक से आई है?


दौड़ी आई नन्हीं बाला,

किया नमन तात को,

मैं इसी देश की पुत्री हूँ तात

भारत पुत्री – भारती!


निश्छल, निर्मल, निर्दोष-वह मुखावेश,

गरिमामयी, सुन्दर, सुखकर - वह शिशु वाणी,

स्मित-मुख थे तात,

थीं स्नेह-सिक्त आँखें सजल |


देखो वत्स! यह सुन्दर अल्पना भारती की,

भारत का यह मानचित्र,

जो हर दिशाओं में ज्ञान-दीप से प्रज्जवलित,

तरुण प्रहरियों के सजग-बोध से रक्षित|


भारती कर रही थी नृत्य-अभ्यास,

कितनी चपलता, क्या भाव-विभाव,

कितनी तल्लीनता, क्या समर्पण,

साधु पुत्री, साधु!


तात स्वयं ताल दे रहे थे भारती के पदचापों को,

धा धिन धिन धा, धा धिन धिन धा,

तीन ताल की थापों से,

वायुमंडल था निनादित|


हे पुण्य-भूमि, हे मातृभूमि!

जननी, पालक, धरित्री महान,

धिन धिनाक धिनाक,

धिन धिनाक धिनाक|


आवर्त-पूर्ण, रिपु चूर्ण चूर्ण,

विकराल काल, बन ढाल विशाल,

हे देव हिमालय, उत्तुंग-श्रिंग,

तिन ता तिरकित, तिन धिनाक धिनाक|


सम्मोहक नृत्य था भारती का,

तात आवाहन करते नटराज-शिव का,

उमानाथ, गिरिजापति, गिरीश, नीलकंठ,

हे रूद्र, अघोर, योगी प्रधान|


तिरकित तिरकित तिन तिन धिनाक,

शिव-तांडव – सृजन का विध्वंश गान,

हो प्रसन्न भगवती, देवी कात्यायनी,

प्रणत, नमन करते भरत औ भारती|


निनादित, शुचित था परिवेश,

वादन प्रहस्त, आरक्त हस्त,

चलती रही साधना तात की,

थी नृत्य से क्लांत भारती भी|


यह देख तरुण बोला - धृष्टता क्षमा हो आचार्य,

आहत-हस्त हैं आपके,

अब तनिक विश्राम करें,

कृपा कर आवाहन निष्पन्न करें|


होने लगा अवरोहण ताल का,

निबद्ध पदाक्षेप शिथिल हुए,

अपने उत्तरीय से तरुण ने,

तात के मुखावृत स्वेद-कणों को पोंछा|


वत्स! भयभीत न हो अहंकारी राजा औ उसकी सेना से,

असली देश-द्रोही तो वे स्वयं हैं,

जो राष्ट्र के संसाधनों को,

अपने षड्यंत्री, पूंजीपति मित्रों को यूँ ही बांटे जाते हैं|


इस क्षुद्र राजनीति से निराश न हो,

अनुसंधान कर,

नए उत्पाद, नई वस्तुएं, नई सेवाओं का,

आविष्कार कर|


जन-जन की सेवा,

सर्व-समावेशी आर्थिक उन्नति से ही संभव है,

इस महत कार्य में हो अनुरत,

नव-निर्माण कर|


पोषित भारत, रक्षित भारत,

धनी भारत, फलित भारत,

ऐसे स्वस्थ, विकसित भारत का,

यथा-संभव परिष्कार कर|


छोड़ दो उस दल को जो व्यक्तिपरक हो चुका है,

तुम्हारा पथ-प्रदर्शक हो तुम्हारी चेतना,

तथा इस जननी के प्रति,

तुम्हारा जीवन-पर्यंत कर्त्तव्य-बोध|


विमुख रहो षड्यंत्रों से,

कायरता का परिचायक यह,

धीर-वीर, योग्य पुरुष कुटिलता तज,

प्रकृति की गोद में सृजन किया करते हैं|


रहो सदैव ऐसे ही,

सुन्दर, विनम्र, उत्साही,

प्रबुद्ध, सजग, सतत प्रयास-रत,

बनो तुम कल के विकास-यान के नियंता,


प्रियों, कोई भी प्रयास निरर्थक नहीं होता,

स्वावलंबी, गुणी, प्रसादित योद्धा ही,

जीवन की रणभूमि में,

अंतत: विजयी होते हैं|


आ सरले! कितनी प्रतिभाशालिनी, तेजस्विनी है तू,

आ तात के अंक लग,

मैं अपना सारा पुण्य-आशीष,

तुझे अर्पित कर दूं |


आओ वत्स! भारत-पुत्र भरत,

गर्वित ललाट, प्रशांत-मुख,

स्नेह-सिक्त कर दो मुझे अंक लग,

ले लो मेरा सब आशीष, सब संचित-पुण्य |


ऐसा कह तात उठे,

प्रस्थान करूँगा मैं अब – संन्यास हेतु, कोलाहल से दूर,

जगत-जननी परा शक्ति,

तुम सबकी रक्षा करे!|

Thursday, December 9, 2021

उद्यमी तुम्हें नमन!

 उद्यमी तुम, वीर तुम,

साहसी तुम, धीर तुम,

विशाल ध्येय, महत कार्य,

चल पड़े, निकल पड़े |

 

निर्माण नव, उत्साह नव,

संकल्प नव, अभिव्यक्ति नव,

कठिनाइयों से भय नहीं,

मंजिल तथापि तय नहीं|

 

चुनौतियाँ प्रचंड हैं,

संसाधन भी अल्प हैं,

शनैः, शनैः, कदम, कदम किन्तु,

ऊंचाईयां छू जायेंगे|

 

न साथ कोई मित्र है,

एकान्त सी यह यात्रा,

सृजन को आतुर हो जो,

बस है उसी की पात्रता|

 

असफल हुए तो क्या हुआ?

इस अपमान में भी मान है,

दृष्टि हो दूरगामी यदि,

पराजय भी एक पड़ाव है|

 

थकना नहीं, मुड़ना नहीं,

दृढ़ता तुम्हारी शस्त्र है,

हतोत्साहित न होना कभी,

आत्म-विश्वास कवच-वस्त्र है|

 

रचयिता तुम भारत-भविष्य के,

विकास-रथ के सारथी,

नव-युग की आपदाओं से रक्षक,

प्रगति-यज्ञ की आशीष-आरती|

 

धन्य है जननी तुम्हारी,

तात और वसुंधरा,

धन्य हैं गुरुजन तुम्हारे,

धन्य बन्धु और सखा|

Monday, November 16, 2020

अंतर्रात्मा की आवाज़

ओ अमूर्त कल्पना के सजीव चित्र,

कितनी तीक्ष्ण है तुम्हारी अन्स्पर्श छुअन,

देह, मानस और आत्मा को चीरती हुई,

मुझमें द्रवित और खुद में मुझे डुबोती हुई,

जैसे मन-मीन का आनंद-सरिता में उन्मुक्त प्लवन|

 

कुछ भी पा जाऊं, अधूरा है मेरा प्राप्त,

यश, धन और ये सामाजिक सरोकार,

क्यूँ नहीं देते मुझे जीवित होने का भान?

कितना भी जी लूं, नहीं भर पाती वो श्वास,

तुम्हारे सानिध्य में मैं जो भर पाती उड़ान|

 

जीवन यदि द्वंद्व-मरुस्थल है, फिर यह प्रेम-मरीचिका क्यूँ?

जन्मों का विरह और फिर मिलन, मिलन यह अपूर्ण क्यूँ?

चलते जाते हैं पड़ाव दर पड़ाव, गंतव्य है भी कोई?

अनेकों ऐसे प्रश्न मेरे, उठते बार बार,

कब तक मैं करूँ उपेक्षित अपनी अंतर्रात्मा की आवाज़|

 

कहाँ मिलेगा वो ध्येय, तदार्थ समर्पित कर सकूं स्वयं को?

कहाँ मिलेगा वो स्तोत्र, मुक्ति-रस पी सकूं जिससे छक कर?

कहाँ मिलेगी वो आग, तप कर जिसमें निखर जाऊं?

कहाँ मिलेगा वो कान्हा, जिसकी राधिका बन जाऊं?

ऐसे प्रश्न मेरे अनुत्तरित, उठते बार बार,

कब तक मैं करूँ उपेक्षित अपनी अंतर्रात्मा की आवाज़|

Saturday, January 25, 2020

प्रतिश्रुति


ओओ-ओओ, आयेंन-आयेंन, क्वाँआँ-क्वाँआँ,
देखो! मैं अवतरित हो गया,
माँ के गर्भ में बाहर आने की आकुलता थी,
और बाहर का यह संसार,
मेरे लिए एक वृहत रहस्य|

बस सोता हूँ और रोता हूँ,
रोता भी कहाँ हूँ?
यह तो मेरा संवाद है,
उस जगत से,
जहाँ से मैं आया हूँ|

तुम मुझमें अपना बचपन देखते हो,
और मैं तुममे अपना भविष्य,
बस प्रेम की भाषा समझता हूँ,
रूप मेरे लिए अपरिचित है,
भावों की ध्वनि सुनता हूँ मैं,

ये पौधे, चिड़िया, तितली और फूल,
सब मेरे दोस्त हैं,
निर्दोषता के पालने पर,
हम साथ-साथ झूलते, खेलते और हँसते हैं,
तुम भी आओ और खेलो मेरे साथ|

मम्मी मुझे अंक में भर दूध पिलाती हैं,
मोहक कपड़े पहना मुझे आकर्षक बनातीं हैं,
पापा मुझे देख मुस्कुराते और रोचक लोरियां सुनाते,
साथ मिलकर हम ओमकार करते,
ॐ – जिसमे समस्त ब्रम्हांड का कम्पन निहित है|

शनैः शनैः मैं परिचित होऊंगा,
इस सृष्टि और इसकी विविधिताओं से,
मानव-जीवन और इसकी जटिलताओं से,
जो अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष, वर्ण-वर्ग के द्वंद्वो से परे,
सबके लिए समान है|

मुझसे सभी प्यार करते,
क्यूंकि मैं मानव का भविष्य हूँ,
उसकी सभ्यता व संस्कृति का वाहक,
इसीलिए इतिहास समझते हुए मुझे वो गलतियाँ नहीं करनी,
जिनके दुष्परिणाम मानव जाति भुगत चुकी है|

प्रगति क्या है? प्रकृति से हमारा सहचर का नाता कैसे हो?
दुःख क्यूँ है? इसका समूल निवारण कैसे हो?
क्या अविभाजित मानव संभव है?
देश प्रेम और कट्टरता, संकीर्णता व व्यापकता का अंतर क्या है?
इन सब प्रश्नों का उत्तर ढूंढना होगा|

मैं ही मानवता का पुण्य हूँ, मैं ही उसमें छिपा दानव,
इस अन्तर्निहित विरोधाभास को आत्मसात करते हुए,
सही राह पर संभल कर आगे बढ़ना होगा,
भय, ईर्ष्या, मोह, अहंकार, क्रोधादि मनोवेगों से निर्मित,
इस भाव-संसार को तरना होगा|

जिम्मेदारियां बड़ी हैं, किन्तु असाध्य नहीं,
मंथन कर मुझे संधान करना होगा उस ‘शाश्वत’ सत्य का,
जिसके आनंद-गान से मैं सबके जीवन को संगीतमय कर सकूं,
यही मेरे आने वाले जीवन का संकल्प है,
यही है मेरे अस्तित्व की प्रतिश्रुति |


Tuesday, May 7, 2019

अतिथि


अतिथि! सुना है तुम आ रहे हो,
स्वागत करता हूँ,
सच कहूं! कुछ संशय में हूँ,
क्या तुम्हें निमंत्रण देना उचित था?
क्या अभी भी रोक दूं तुम्हें आने से?

विविधताओं, अनिश्चितताओं से भरा यह संसार,
गूढ़ रहस्यों और जटिलताओं से भरा यह जीवन,
इस आमंत्रण से तुम्हारी मुश्किलें तो नहीं बढ़ा दी मैंने?
विचारों के इस गुम्फन से थकित और व्यथित होता हूँ,
फिर भी! चल पड़े हो तो आओ, स्वागत है |

तुम्हारी क्या और कैसे मदद कर पाऊंगा?
भौतिक सुख की सारी सुविधाएं उप्लब्ध होंगी यहाँ,
फिर भी इस साधन मात्र से तुम प्रसन्न रहोगे ?
संदेह है मुझे,
चलो! सिधार्थ की कहानी सुनाता हूँ|

अनेकोनेक भोग-विलासों में निमज्जित रहने पर भी,
सिधार्थ प्यासा था - पीड़ित तथा व्याकुल,
उसकी विकल वेदना में सत्य की अभिलाषा थी,
अनुसंधित्सु! तडपा और भटका वह,
गहन आत्मान्वेषण के प्राप्य ने सिधार्थ को बुद्ध बना दिया|

अतिथि! कितना कुछ कहना चाहता हूँ,
लेकिन मैं स्वयं ही यहाँ असहज अनुभव करता हूँ,
मेरे यहाँ होने का उद्देश्य क्या है?
कब आएगा वो पल ?
जब मैं निश्चिन्त इस कोलाहल से विदा ले पाउँगा,

क्या तुम भी मेरी तरह इसी भांति विचलित होगे?
हाँ मैंने बुलाया था तुम्हें,
तुमसे मिलने की उत्कंठा थी,
तथा अस्तित्व की चुनौतियों से तुम्हें परिचित कराने की ग्लानि भी,
स्नेह स्वीकार करना और अपराध क्षमा|

देखो! ये पेड़, ये फूल, ये चहचहाते पक्षी, ये फुदकती गिलहरी,
ये हवा, यह बहता पानी,
सब आत्मनिर्भर, स्व-प्रेरित, स्वतः गतिमान हैं,
संचालित हैं,
उस सर्वत्र गुंजायमान मौन के कम्पनों से|

हे अतिथि,
तुम भी स्वावलंबी बनना,
परिश्रमी, धैर्यशाली, सुख-दुःख में समान,
विनम्र, विवेकी, और संवेदनशील,
करुणामय, सबको साथ लेकर चलना|

आनंद बटोरने में नहीं,
अर्जित कर उसे बांटने में है,
इस अमृत-वाणी को,
प्राणों में बसा, जीवन का आधार बना,
अपना पथ प्रशस्त करना|

आओ अतिथि मित्र!
तुम्हारा अभिनन्दन!

Thursday, January 31, 2019

तुम ही तो हो


सुबह की खिलखिलाती किरणों में,
जब देखी मैंने परछाई फूल की,
और फिर देखा,
स्वाभिमान की आभा से मंडित,
कुसुमित उस फूल को,
जो था अपनी गरिमा में शोभायमान,
आहिस्ता से, दिल के कोने से कहीं,
ये आवाज़ आई,
यह गर्वित, पुष्पित शोभा तुम ही तो हो|

चलते-चलते,
जब थक गया मैं,
स्वेद-स्नात, हैरान और परेशां,
सोचते हुए ये,
कैसा ये सफ़र, मंजिल है कहाँ?
उस समय जो चली शीतल मंद बयार,
दिल के कोने से
, आहिस्ता से,
वही आवाज़ आई,
ये ठंडा एहसास तुम ही तो हो|

ज़िन्दगी की जंग में,
लड़ता रहा, गिरता रहा,
गिरते डरते, उठते, सीखते हुए,
अनवरत प्रयासों से,
जब पार की जीत की वो रेखा,
मेरे मन ने मुझसे, आहिस्ता से,
फिर कहा,
तमाम हासिलों की धडकनों में,
तुम ही तो हो|

सुकून की तलाश में भागता रहा पाने को,
दौलत और शोहरत,
बहकता रहा,
न जाने किन गलियों में,
अनेकों उपलब्धियों-प्रशस्तियों के बावजूद,
जब वो मुखड़ा देखा तुम्हारा,
अंतर्मन से, आहिस्ता से,
फिर वो ही आवाज़ आई,
सुकून तुम ही तो हो|
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